Monday, September 28, 2009

फैरूं जलमसी कानदान!

फैरूं जलमसी कानदान!

कानदान बिन कवि सम्मेलण

री हर रंगत फीकी है

हर राग अधूरी है

हर साज बासी है

हर रस में है, फगत

लीक पूरण री उंतावळ!

अजै रात बाकी है।

रात कटै किंया इण भरमारा सूं

म्हारा कविराज री आस बाकी है।

भींता चढ-चढ हबीड़ा सुण लेंता

बुसक्यां भर-भर सीख ले लेंता

ताळयां बजा-बजा’र

खींचताण कर लेंता

जोस जोस में

हर भोळावण ले लेंता

कविता रै रसपाण

सूं ही अळघा बैठा

मायड़ भौम रा

दरसण कर लेंता

हांसी रा हबोळा सूं

सगळी थाकल भूल ज्यांता

वीर रस रो कर

पारणौ बठ मूंछयां रै दे लेंता।

मूंछयां री मरोड़ गई

अबै तो निमूंछा ही

भटकां हां।

साख बधाई सरबाळै ही

कींकर भूलावां हां?

साचाणी वो राजस्थानी रौ ऐकलो

चमाचाळ हो, कलम रौ हो कारीगर

चारणी रौ दूध उजाळ हो

इण में आनी रो फरक कोनी।

हर राजस्थानी रै हिवड़ै बस्यौ,

राजस्थानी रौ सिरमौड़ हो।

गळगळा कंठा सूं सारस्वत चितारै

आ आस लियां कै

मरूभोम रौ लाडैसर

किणी चारणी री

कूख सूं फैरूं जलमैला!

ऐकर फैरूं इण मरूभोम

पर साज नूंवा साजैला

कविता रै हरैक रंग री

मैकार अठै लाधैला।

सम्मेलण रा जाचा अठै जचैला

रात सूं परभात सौरी कटैला

सोनलियो सूरज अठै उगैला।

आस म्हांकी फळेला

आसण है खाली वांरौ

कविराज अठै पधारैला।

वीर रस रा कर पारणा

जोध अठै जागैला!

फैरूं हबीड़ा उठैला!

विनोद सारस्वत, बीकानेर

निपूती

निपूती

तेरह करोड़ जणखै री मावड़

अजै निपूती हूं?

सोने-रूपे रा थाळ घणा पण,

ऐंठ खावण री तेवड़ली है!

चीर लेग्या चोरटा,

जबान कतरली रोळतंत्रा!

होळी दीयाळी ऐंठा ठांवां में जीमै

वै पूत निपूती रा है?

लोही जमग्यो हाडां मांय

उकळतो लोही लावूं

कठै सूं?

म्हारा लाडैसर

डिगरयां ले-ले

रूळता फिरता

फैसन में फाटता

भचभेड़यां खावता

राज रा चाकर

बणण री आस लियां।

जूण पूरी करता

अधबुढा व्हैग्या है!

भूल निज भासा

ऐ तो गिरड़-गिरड़

गरड़ावै है।

परभासा में गिटर-पिटर कर,

ऐ घणा पोमावै है।

निज भासा-संस्कृति रै

लगा बळीतो

पंजाबी पोप पर

नाच उघाड़ा नचावै है।

जद ही

राणा प्रताप, राणा सांगा

जैमल फता

री इण’भौम री

कूख

बांझ कुहावै है।

जिका हा राज करणिया

वै आज रोळतंत्रा

रै आगे पूंछ हिलावै है।

राहुलजी-सोनियाजी

रा गुण

बखाण

भाटां ज्यूं बिड़दावै है।

विनोद सारस्वत, बीकानेर

Tuesday, September 8, 2009

भावां रा भतूळ

भावां रा भतूळ

बाळपण, जोधपण अर बुढापौ

जिण गत ढळतो जावै है

उणी गत हियै में उपज्या

भावां रा भतूळ,

बंबूळ बण

तीखा तीर चलावै है।

मत ठामो बेलीड़ां!

भावां रै इण भतूळ नैं

उठण दो उफाण,

ढाब्यां ओ ढबै नीं।

हियै री कूख सूं

उपज्या भाव

सगळी सींवा

तोड़ण री खिमता राखै।

रजपूती रंग में रंग्या भाव

खागां खड़कावण में

पाछ नीं राखै।

क्यूं हियै उपज्या

भाव?

म्हनैं खुद नैं ओ

लखाव कोनी।

म्हैं भी कदै जोधपण में

भारत भाग्य विधाता गातो हो

इण री स्यान में

लुळ-लुळ

सिर नुंवातो हो।

देस रा दुस्मियां सांमी

कदै गोडा नीं टेक्या

अर पत्रकारीय धर्म

निभातो हो।

पण आज चाळीसी

उमर में

देस भगती

रो राग छोड’र

कलम पकड़णिया हाथ

खागां खड़कावण

री मन में क्यूं राखै?

नीं जोइजै म्हनैं

कोई राज री चाकरी

अर नीं है म्हनैं

पुरस्कारां री चावना

अर नीं है

किणी मान-संनमाण

री दरकार।

फैरूं क्यूं उठै?

हियै में भावां रा

तीखा भतूळ!

क्यूं बिन भासा री

मानता रै

आजादी

अधूरी अर लोकतंत्र

खारौ जहर लागै है?

म्हारै खुद रै ही

हाथां में नीं है

बेलीड़ां इण री

कोई मोरी नैं

लगाम! कै

ठाम सकूं

भावां रै हण

भतूळ नैं।

भावां री आजादी

पर किणी सरकार

रौ बख नीं चालै।

सो खुले खाळै

बगण दो भावां रै

इण उफाण नैं।

गूंगी बोळी सरकार

नीं समझै

धरणा अर मुखपती

री भासा

वा समझै फगत

बम बारूद री भासा

गोळी रा गरणाटा

आग-बळीतां रै

धूं रा गोटां

मिनखां री बिछती ल्हाषां

जद क्यूं?

ढबै भावां रा भतूळ।


विनोद सारस्वत, बीकानेर